शुक्रवार, अप्रैल 04, 2014

तुम्हारी जुल्फ के साये में शाम कर लूँगा..कैसे कह पाए कैफ़ी अपनी पहली ग़ज़ल ? Tumhari Zulf ke saaye..Kaifi Azmi

साठ के दशक में एक फिल्म आयी थी नौनिहाल। संगीतकार थे मदनमोहन। इस फिल्म के सारे गीत कैफ़ी आज़मी ने लिखे थे।  आज भी कैफ़ी आज़मी की पहचान गीतकार के बजाए एक शायर के रूप में ज्यादा है। पर काग़ज़ के फूल से ले कर अर्थ तक जितनी भी फिल्मों में कैफ़ी साहब ने लिखा, उनका काम सराहा गया। लोग उनकी तुलना साहिर से करते हैं। साहिर और कैफ़ी दोनों ही कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित थे। जहाँ साहिर ने फिल्मी गीतों में भी अपनी राजनीतिक सोच को व्यक्त किया वहीं कैफ़ी अपनी विचारधारा को अपनी शायरी की जुबान बनाते रहे पर फिल्मी गीतों में अपने लेखन को उन्होंने इस सोच से परे रखा। इससे पहले कि मैं आपसे नौनिहाल की इस ग़ज़ल की चर्चा करूँ, कैफ़ी साहब की ज़िंदगी से जुड़ा एक वाक़या आपसे बाँटना चाहूँगा।


एक इंसान.शायर कैसे बनता है ये हर काव्य प्रेमी जानना चाहता है। अब कैफ़ी साहब को ही ले लीजिए। उनके अब्बाजान ख़ुद तो शायर नहीं थे पर उन्हें कविता की पूरी समझ थी। उनसे बड़े तीनों भाई शायरी के बड़े उस्ताद थे। छुट्टियों में वो जब घर आते तो सारा कस्बा उनको सुनने उमड़ पड़ता। बालक कैफ़ी जब अपने भाइयों की वाहवाही सुनते तो उन्हें लगता कि क्या मैं भी कभी इनकी तरह शेर कह पाऊँगा। दुख की बात ये थी की इन महफिलों में उन्हें ज्यादा देर बैठना ही नसीब न होता था। उनके पिता उन्हें जब तब पान बनवाने का काम थमा कर वहाँ से भगा देते थे।

कैफ़ी के पिता जब बहराइच में थे तो वहाँ एक तरही मुशायरा हुआ। तरह थी (Word pattern for Qafiya & Radeef) मेहरबाँ होता, राजदाँ होता...कैफ़ी साहब को मौका मिला तो उनके मन में बहुत दिनों से जो चल रहा था वो शेर की शक़्ल में बाहर आ गया.. उन्होंने पढ़ा

वह सबकी सुन रहे हैं,सबको दाद ए शौक़ देते हैं
कहीं ऐसे में मेरा किस्सा ए गम बयाँ होता

लोगों ने तारीफ़ की  कि बड़ी अच्छी याददाश्त है, क्या बढ़िया ढंग से पढ़ते हो। दरअसल सब यही सोच रहे थे कि  कैफ़ी ने अपने भाईयों की ग़ज़ल उड़ाकर अपने नाम से यहाँ पढ़ दी है। जब उनके पिता ने भी यही शक़ ज़ाहिर किया तो  कैफ़ी फूट फुट कर रो पड़े। सब लोगों ने कहा कि अगर तुमने ये ग़ज़ल लिखी है तो तुम्हें एक इम्तिहान देना पड़ेगा। कैफ़ी साहब को मिसरा (शेर की एक पंक्ति) थमा दिया गया ''इतना हँसों की आँख से आँसू निकल पड़ें''। अब इस कठिन मिसरे पर कैफ़ी को पूरी ग़ज़ल बनानी थी। कैफ़ी उसी कमरे में दीवार की ओर मुँह कर के बैठ गए और थोड़ी देर में तीन चार शेर लिख डाले। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि  कैफ़ी साहब तब सिर्फ ग्यारह साल के थे।  कैफ़ी साहब ने लिखा था...

इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल1 पड़े
हँसने से हो सुकून ना रोने से कल2 पड़े

जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े

एक तुम के तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़3 है
एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े

मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े
1.विघ्न  2. चैन  3. उतार चढ़ाव

तो ये थी कैफ़ी आज़मी की शायर बनने की दास्ताँ। लौटते हैं नौनिहाल की उस ग़ज़ल पर। क्या लिखा था कैफ़ी आज़मी साहब ने और क्या धुन बनाई मदनमोहन ने..वल्लाह ! मदन मोहन ग़ज़लों को इस खूबी से संगीतबद्ध करते थे कि लता जी आज भी उनको ''ग़ज़लों के शाहजादे'' के नाम से याद किया करती हैं। सितार और वॉयलिन का बेहतरीन इस्तेमाल किया है इस गीत के संगीत संयोजन में उन्होंने। पर कैफ़ी के अशआरों में धार ना होती तो मदनमोहन का संगीत कहाँ उतना प्रभावी हो पाता?

इस  ग़ज़ल के हर मिसरे को पढ़ते ही मन के तार रूमानियत के रागों से झंकृत होने लगते हैं । जिस अंदाज़ में रफ़ी साहब ने इन खूबसूरत लफ्जों को अपनी आवाज़ दी है  लगता है कि वक़्त ठहर जाए, ये ग़ज़ल और उससे उभरते अहसास मन की चारदीवारी से कभी बाहर ही ना निकलें।

तुम्हारी जुल्फ के साये में शाम कर लूँगा..
सफ़र इस उम्र का, पल में.., तमाम कर लूँगा

नजर.. मिलाई तो, पूछूँगा इश्क का.. अंजा..म
नजर झुकायी तो खाली सलाम कर लूँगा,

तुम्हारी जुल्फ ...

जहा..न-ए-दिल पे हुकूमत तुम्हे मुबा..रक हो..
रही शिकस्त. तो वो अपने नाम कर लूँगा
तुम्हारी जुल्फ ...



वैसे जानना चाहूँगा कि आप इस ग़ज़ल को सुनकर कैसा महसूस करते हैं?
Related Posts with Thumbnails

22 टिप्पणियाँ:

गिरिजा कुलश्रेष्ठ on अप्रैल 04, 2014 ने कहा…

मदन जी का संगीत और रफी साहब की किसी सुरंग से आती हुई सी रेशमी आवाज ..। कहीं बहुत गहरे में डुबा देने वाली गज़ल है यह ।

Parmeshwari Choudhary on अप्रैल 04, 2014 ने कहा…

ग़ज़ल तो दिलकश है ही,आपका लेख भी बहुत अच्छा है

राजेश गोयल ने कहा…

यह ग़ज़ल तो माशा अल्लाह बेहद खूबसूरत है ही ; मगर आप ने कैफ़ी साहब के बारे में जो जानकारी दी है वो बेहतरीन है | एक ग्यारह साल के लड़के के ऊपर एक भरी महफ़िल में कैसा दबाव रहा होगा, और उस चुनौती को स्वीकार करते हुए उसने एक अच्छी रचना तुरंत तैयार कर दी | इसी को प्रतिभा कहते हैं | एक उम्दा और जानकारी से भरपूर लेख के लिए धन्यवाद |

राजीव कुमार झा on अप्रैल 04, 2014 ने कहा…

बहुत सुकून देता गजल है,उस पर मदमोहन का संगीत भी असरदार है.

राजीव कुमार झा on अप्रैल 04, 2014 ने कहा…

बहुत सुंदर प्रस्तुति.
इस पोस्ट की चर्चा, शनिवार, दिनांक :- 05/04/2014 को "कभी उफ़ नहीं की
" :चर्चा मंच :चर्चा अंक:1573
पर.

Shubhkaran Singh on अप्रैल 04, 2014 ने कहा…

यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े...
my goodness ... cant believe he wrote this at a mere age of 11 .. hats off Kaifi saahb...

Manish Kumar on अप्रैल 04, 2014 ने कहा…

गिरिजा जी : बिल्कुल सही कहा आपने !

परमेश्वरी जी : आलेख पसंद करने का शुक्रिया !

राजीव : सहमत हूँ आपके आकलन से। इस प्रविष्टि को चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए आभार !

Manish Kumar on अप्रैल 04, 2014 ने कहा…

राजेश गोयल और शुभकरण सिंह जी कुछ लोग जन्मजात हुनर ले के साथ पैदा होते हैं। पर कभी तो वो उस हुनर को कम आँकते हुए उसे सबके सामने लाने की ज़हमत नहींं करते और कुछ क़ैफी जेसे होते हैं तो हर उस मौके, उस दबाव को ध्यान में रखते हुए अपने हुनर का इम्तिहान देने से ज़रा भी नहीं कतराते।

Vijay Menghani on अप्रैल 04, 2014 ने कहा…

साहिर ने फिल्मों के बाहर जो नज़्में लिखी वो भी बहुत पुरअसर थी पर कैफी की ग़ज़ल फिल्मों में बेहतर है शायद ज़्यादा सरल शब्दों के कारण।

Manish Kumar on अप्रैल 04, 2014 ने कहा…

विजय बतौर शायर कैफ़ी को उनकी इंकलाबी शायरी के लिए जाना जाता है। जहाँ तक पुरअसर होने की बात है फिल्म संगीत के बाहर कैफ़ी को मैं उतना अभी तक पढ़ नहीं पाया हूँ कि साहिर की तुलना में कोई राय कायम कर पाऊँ।

Sonroopa Vishal on अप्रैल 04, 2014 ने कहा…

Abhi kuch din pahle hi qaifi sahab ke bare me aha zindgi me padhne ko mila aur aaj aapke bahane.....shukria...ek khoobsurat ghazal sunvane ke liye vo bhi ek rochak vaqaye ke sath!

Unknown on अप्रैल 05, 2014 ने कहा…

Kayamat si hai ye panktiyaan... dil ko chhoo jati hain. bs Waah waah karne ko dil chahta hai. :)

RAKESH KUMAR SRIVASTAVA 'RAHI' on अप्रैल 05, 2014 ने कहा…

सुंदर आलेख.

dr.mahendrag on अप्रैल 05, 2014 ने कहा…

कैफी आजमी का गीत, मदनमोहन का संगीत , रफ़ी की आवाज सब ने एक कालजयी रचना को जनम दे दिया आज भी उतना ही कारन प्रिय है जितना उस समय था

Unknown on अप्रैल 05, 2014 ने कहा…

मनीष जी,सच में बहुत सुन्दर पोस्ट।साझा करने के लिए धन्यवाद॥

प्रवीण पाण्डेय on अप्रैल 06, 2014 ने कहा…

चुन चुनकर निकलते गहरे शब्द।

Manish Kumar on अप्रैल 06, 2014 ने कहा…

हाँ नम्रता वैसे तो पूरी ग़ज़ल ही कमाल है पर मुझे ये दो पंक्तियों खास तौर पर लाजवाब कर जाती हैं...

जहान-ए-दिल पे हुकूमत तुम्हे मुबारक हो..
रही शिकस्त. तो वो अपने नाम कर लूँगा

Manish Kumar on अप्रैल 06, 2014 ने कहा…

महेंद्र जी बिल्कुल सही कह रहे हैं आप !

Manish Kumar on अप्रैल 06, 2014 ने कहा…

प्रवीण हम्म्म सही
सुनीता जी व राकेश जी पोस्ट पसंद करने के लिए शुक्रिया !

Tamasha-E-Zindagi on अप्रैल 11, 2014 ने कहा…

बहुत खूब साहब मजेदार - जय हो

Unknown on मार्च 22, 2015 ने कहा…

इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े
हँसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े

शानदार प्रस्तुति... वाह जनाब

Manish Kumar on मार्च 22, 2015 ने कहा…

पसंदगी का शुक्रिया युधिष्ठिर राज !

 

मेरी पसंदीदा किताबें...

सुवर्णलता
Freedom at Midnight
Aapka Bunti
Madhushala
कसप Kasap
Great Expectations
उर्दू की आख़िरी किताब
Shatranj Ke Khiladi
Bakul Katha
Raag Darbari
English, August: An Indian Story
Five Point Someone: What Not to Do at IIT
Mitro Marjani
Jharokhe
Mailaa Aanchal
Mrs Craddock
Mahabhoj
मुझे चाँद चाहिए Mujhe Chand Chahiye
Lolita
The Pakistani Bride: A Novel


Manish Kumar's favorite books »

स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

एक शाम मेरे नाम Copyright © 2009 Designed by Bie